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Volume 6 Issue 2
February 2025
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नवजागरण के पुरोधा: भारतेन्दु हरिश्चन्द्र
Author(s) | Kanhaiya Lal Sagitra |
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Country | India |
Abstract | उन्नीसवीं शताब्दी में भारत में एक नई चेतना का उदय हुआ, जिसके साथ समाज, धर्म, राजनीति और साहित्य में गहरी बदलाव की लहर दौड़ी। इस बदलाव के प्रेरणास्त्रोतों में से एक प्रमुख नाम था भारतेन्दु हरिश्चन्द्र, जिनका साहित्यिक योगदान भारतीय संस्कृति और समाज की पुनर्नवा के रूप में देखा जाता है। अपने लेखन के माध्यम से उन्होंने न केवल साहित्य में नयापन और नवीनता का संचार किया, बल्कि सामाजिक विद्रुपताओं, राजनीतिक भ्रष्टाचार और अंधविश्वास जैसी समस्याओं को भी उजागर किया, और उन्हें सुधारने के लिए अपने विचारों को प्रकट किया। भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने हिन्दी साहित्य को न केवल समृद्ध किया, बल्कि उसे नई दिशा दी। उनकी लेखनी ने भारतीय समाज के कुरीतियों और रूढ़िवादिता को चुनौती दी। वे हिन्दी साहित्य के पहले रचनाकार थे जिन्होंने आधुनिकता को साहित्य का अभिन्न हिस्सा बनाया और इस दिशा में मील का पत्थर साबित हुए। भारतेन्दु ने रीतिकाव्य के सामंती दृष्टिकोण को छोड़कर स्वस्थ परंपरा का पोषण किया और साहित्य में सामाजिक बदलाव का संदेश दिया। कुंजी शब्द: समाज, धर्म, राजनीति और साहित्य, सामाजिक विद्रुपताओं, भ्रष्टाचार, सामाजिक बदलाव प्रस्तावना भारतेन्दु हरिश्चन्द्र हिन्दी गद्य के क्षेत्र में नवाचार करने वाले पहले लेखक थे। उनका दृष्टिकोण भाषा के उपयोग के प्रति अत्यंत जागरूक था। भारतेन्दु जी ने खड़ी बोली को गद्य की मुख्य भाषा के रूप में स्थापित किया और इसको हर वर्ग के लिए सुलभ एवं प्रासंगिक बनाने की दिशा में कदम बढ़ाया। उनके समय में जब अंग्रेजी का प्रभाव तेजी से बढ़ रहा था, उन्होंने हिन्दी को एक सशक्त और समृद्ध भाषा के रूप में प्रस्तुत किया। उनकी रचनाओं में ‘भारत दुर्दशा’ जैसे नाटकों में यह स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है, जहाँ उन्होंने अपनी लेखनी से भारतीय समाज के दुर्दशा की तस्वीर पेश की और जनता को अपनी भाषा के महत्व को समझाया। उनका प्रसिद्ध उद्धरण – ‘‘निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल। बिन निज भाषा ज्ञान के मिटै न हिय को शूल।’’ – यह उनकी भाषा और संस्कृति के प्रति अडिग विश्वास को दर्शाता है। भारतेन्दु हरिश्चन्द्र का योगदान केवल साहित्यिक क्षेत्र तक सीमित नहीं था, बल्कि वे सामाजिक सुधारक के रूप में भी सामने आए। उन्होंने रंगमंच में नई ऊँचाइयाँ हासिल की और भारतीय रंगमंचीय परंपराओं को नया मोड़ दिया। उनके नाटकों में जीवन की सच्चाई और वास्तविकता को निखारा गया, जिससे वे न केवल साहित्यकार, बल्कि समग्र समाज के सुधारक भी माने जाते हैं। निष्कर्षतः, भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने हिन्दी साहित्य में जिस तरह की नयापन, आधुनिकता और समाज सुधार के बीज बोए, वे आज भी प्रासंगिक हैं। उनका योगदान भारतीय साहित्य और संस्कृति में अमूल्य रहेगा। भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने अपने समय के साहित्यिक परिप्रेक्ष्य को बदलने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उन्होंने न केवल साहित्य की शृंगारी और अभिजात्य प्रवृत्तियों को चुनौती दी, बल्कि समाज के समक्ष मौजूद गंभीर समस्याओं को उजागर किया। भारतेन्दु जी ने तीन प्रमुख पत्रिकाओं – ‘कविवचन सुधा’, ‘हरिश्चन्द्र-मैगजीन’, और ‘बालबोधिनी’ – का संपादन किया, जो न केवल साहित्यिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण थीं, बल्कि सामाजिक और राष्ट्रीय जागरूकता के प्रचार का माध्यम भी बनीं। इन पत्रिकाओं के माध्यम से उन्होंने ऐसे विषयों को प्रमुखता से उठाया, जो समाज में व्याप्त अंधविश्वास, राजनीतिक भ्रष्टाचार, और विदेशी शासन के आर्थिक शोषण जैसी समस्याओं पर प्रकाश डालते थे। इन पत्रिकाओं ने साहित्यिक और सामाजिक जागरूकता का एक नया युग स्थापित किया। उनकी साहित्यिक दृष्टि एक गहरी सामाजिक और राजनीतिक जागरूकता से प्रभावित थी। विदेशी शासन के कारण भारतीय समाज और अर्थव्यवस्था दोनों ही कमजोर हो चुके थे। राजनीतिक दृष्टि से भारतीय समाज में जागरूकता की भारी कमी थी, जिससे वे अपने अधिकारों और कर्तव्यों से अंजान थे। भारतेन्दु ने इस स्थिति को पहचानते हुए, भारतीय जनता को अपने उत्थान और देश के उद्धार के लिए प्रेरित किया। उन्होंने साहित्य का उपयोग केवल मनोरंजन और शृंगारी कविताओं तक सीमित रखने के बजाय, उसे सामाजिक और राष्ट्रीय जागरूकता का साधन बनाया। उनके समय में साहित्य मुख्य रूप से शृंगारी प्रवृत्तियों से प्रभावित था, और समाज की वास्तविक समस्याओं से दूर था। साहित्यकारों का ध्यान अधिकतर नारी के सौंदर्य, श्रृंगारी भावनाओं और जीवन की बाहरी आभा पर केंद्रित था, जबकि समाज के भीतर हो रहे पतन, राजनीतिक शोषण और आर्थिक संकट की ओर किसी का ध्यान नहीं था। भारतेन्दु जी ने इस दिशा में महत्वपूर्ण बदलाव लाया। उन्होंने रीतिकाव्य की शृंगारी प्रवृत्तियों को छोड़ते हुए धीरे-धीरे साहित्य को राष्ट्रीय चेतना की ओर उन्मुख किया। उनकी रचनाओं में शृंगारी और राष्ट्रीयता दोनों का मिश्रण दिखाई देता है, लेकिन यदि गहरे दृष्टिकोण से देखें तो स्पष्ट होता है कि उन्होंने शृंगारिकता से धीरे-धीरे राष्ट्रवाद की ओर अपना रुख मोड़ा। उनकी रचनाओं में यह परिवर्तन सहज और स्वाभाविक था, जो न केवल साहित्य को राष्ट्रीयता के रंग में रंगता था, बल्कि समग्र समाज को भी जागरूक करता था। उनका साहित्य समाज और राष्ट्र के लिए एक बुलावा था, जो सामाजिक बदलाव और राष्ट्र निर्माण की दिशा में महत्वपूर्ण कदम साबित हुआ। निष्कर्षतः, भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने साहित्य को केवल मनोरंजन का साधन नहीं बनाया, बल्कि उसे राष्ट्र की समस्याओं के समाधान के रूप में प्रस्तुत किया। उनके योगदान को कभी भी भुलाया नहीं जा सकता, क्योंकि उन्होंने साहित्य को जागरूकता, समाज सुधार और राष्ट्र के उत्थान का शक्तिशाली साधन बना दिया। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के शब्दों में भारतेन्दु हरिश्चन्द्र की लेखनी को दोनों पक्षों से सराहा गया था – एक ओर उनकी कविताओं में शृंगार रस की ऐसी गहरी और मर्मस्पर्शी अभिव्यक्ति थी, जो सुनने वालों के हृदय को छू जाती थी, और दूसरी ओर स्वदेश प्रेम से प्रेरित उनके लेख और कविताएँ देशवासियों में नवचेतना और राष्ट्रीय जागरूकता का संचार करती थीं। भारतेन्दु जी के साहित्य में यह विशेषता थी कि उन्होंने साहित्य के माध्यम से न केवल मनोरंजन और शृंगार की ओर प्रवृत्त किया, बल्कि देश के प्रति प्रेम और समाज सुधार की भावना भी जागृत की। उनके निबंध, जैसे 'भारतवर्ष की उन्नति कैसे हो?' ने भारतीय समाज को उन्नति के रास्ते पर चलने के लिए प्रेरित किया। यह निबंध, जो दिसंबर 1884 में बलिया के ददरी मेले में आर्य देशोपकारणी सभा में उनके द्वारा प्रस्तुत किया गया था, भारतीय समाज के सुधार के लिए एक महत्वपूर्ण दस्तावेज़ था। इसमें भारतेन्दु जी ने भारतीयों के विकास में आने वाली रुकावटों, कुरीतियों और अंधविश्वासों को दूर करने की आवश्यकता पर जोर दिया। उन्होंने समाज के सभी वर्गों को बेहतर शिक्षा प्राप्त करने, उद्योग और धंधों के विकास, सहयोग और एकता को बढ़ावा देने, तथा आत्मनिर्भर बनने के लिए प्रेरित किया। उनका यह दृष्टिकोण न केवल साहित्यिक था, बल्कि सामाजिक और राजनीतिक रूप से भी अत्यंत प्रभावशाली था। नाटककार के रूप में भी भारतेन्दु जी की ख्याति अत्यधिक थी। उन्होंने नाटकों के माध्यम से समाज के विभिन्न मुद्दों को उठाया, जो उस समय के लिए नए और अभिनव थे। भारतेन्दु जी ने पुरानी परंपराओं का सम्मान करते हुए नाट्य लेखन में नवीनता की जो लहर शुरू की, वह उन्हें आधुनिक नाटकों का अग्रदूत मानने का कारण बनी। उनके नाटक ना केवल सामाजिक संदेश देने वाले थे, बल्कि उनमे गहरी सांस्कृतिक और राजनीतिक चेतना भी समाहित थी। कुल मिलाकर, भारतेन्दु हरिश्चन्द्र का कार्य भारतीय समाज के लिए एक प्रेरणा स्रोत बना। उनके साहित्य और नाटकों ने समाज में जागरूकता और राष्ट्र प्रेम की भावना को बलवती किया, जिससे उनका योगदान भारतीय साहित्य में अविस्मरणीय बन गया। नाटककार के रूप में भारतेन्दु हरिश्चन्द्र की ख्याति उनके जीवनकाल में ही स्थापित हो गई थी। उन्होंने न केवल मौलिक नाटकों की रचना की, बल्कि अनूदित नाटकों के माध्यम से भी भारतीय रंगमंच को समृद्ध किया। भारतेन्दु जी ने नाटकों में जिन विषयों को उठाया, वे उस समय की सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक परिस्थितियों से पूरी तरह जुड़े हुए थे। वे पुरानी परंपराओं को आधार बनाकर नए युग की सोच और मुहावरे को विकसित करने में सक्षम रहे। यही कारण है कि उन्हें आधुनिक नाटकों के आदि सूत्रधार के रूप में जाना जाता है। भारतेन्दु के नाटक विविधता से परिपूर्ण हैं और प्रत्येक नाटक में उन्होंने समाज के विभिन्न पहलुओं को उजागर किया। उदाहरण के लिए, उनके नाटक ‘विद्यासुंदर’ में प्रेमविवाह के महत्व को प्रदर्शित किया गया है, वहीं ‘पाखण्ड बिड़म्बन’ में मदिरा सेवन की प्रवृत्ति पर व्यंग्यात्मक शैली में भारतीय नारी की वीर भावना और पतिव्रत धर्म को उभारा गया है। ‘अंधेर नगरी’ नाटक में उन्होंने लोभवृत्ति और सत्ता-तंत्र की कुरीतियों पर तीखा कटाक्ष किया है। इस नाटक का प्रमुख पात्र घासीराम चूरुवाला तत्कालीन भ्रष्ट व्यवस्था को अपने गीतों के माध्यम से व्यंग्यपूर्ण ढंग से व्यक्त करता है, जैसा कि उसकी पंक्तियों से स्पष्ट होता है: ‘चूरन हाकिम सब जो खाते सब पर दूना टिकस लगाते। सारा हिंद हजम कर जाता।’ इसके अलावा, ‘नये जमाने की मुकरी’ नाटक में भारतेन्दु जी ने समकालीन सामाजिक और राजनीतिक विसंगतियों को उजागर किया और हास्य व्यंग्य के माध्यम से समाज में व्याप्त कुरीतियों पर चुटकी ली। भारतेन्दु जी के साहित्य का विस्तृत दृष्टिकोण और उनकी गहरी समझ यह सिद्ध करती है कि वे न केवल हिन्दी के जन्मदाता थे, बल्कि भारतीय नवजागरण के अग्रदूत भी थे। उन्होंने भारतीय समाज और संस्कृति के उत्थान के लिए अनगिनत रचनाएँ कीं, भाषण दिए, नाटक रचे और समाज सुधार के लिए लगातार कार्य किया। उनके साहित्य में कहीं रुदन है, तो इसलिए कि जनसामान्य व्यथित था, कहीं खोझ है, क्योंकि जनता असहाय थी, और कहीं हुँकार है, क्योंकि यही दशोद्धार का एकमात्र मार्ग था। भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने साहित्य, संस्कृति, समाज और राजनीति के विभिन्न पहलुओं को एक नए दृष्टिकोण से प्रस्तुत किया और हिंदी साहित्य को न केवल नई दिशा दी, बल्कि उसे विश्व साहित्य में सम्मानजनक स्थान दिलवाया। उन्होंने अपने जीवन में भारत के संघर्ष, आक्रांताओं के खिलाफ देश की स्थिति और उसकी व्यथा को महसूस किया और उस दर्द को अपनी लेखनी के माध्यम से उकेरा। इसलिए वे न केवल एक साहित्यकार, बल्कि एक युगविधायक थे। |
Keywords | समाज, धर्म, राजनीति और साहित्य, सामाजिक विद्रुपताओं, भ्रष्टाचार, सामाजिक बदलाव |
Field | Arts |
Published In | Volume 6, Issue 1, January 2025 |
Published On | 2025-01-20 |
Cite This | नवजागरण के पुरोधा: भारतेन्दु हरिश्चन्द्र - Kanhaiya Lal Sagitra - IJLRP Volume 6, Issue 1, January 2025. |
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