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E-ISSN: 2582-8010     Impact Factor: 9.56

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शंकर शेष कृत ‘बिन बाती के दीप’ नाटक में स्त्री-पुरुष संबंधों का यथार्थ विश्लेषण

Author(s) Shyam Bihari Nayak
Country India
Abstract शंकर शेष द्वारा रचित नाटक ‘बिन बाती के दीप’ (1968) एक अनुपम कृति है, जो स्त्री-पुरुष संबंधों के जटिल पहलुओं को गहरे और प्रभावशाली तरीके से प्रस्तुत करती है। शंकर शेष ने इस नाटक में स्त्री-पुरुष संबंधों के भीतर की उलझनों को बड़े सटीक और संवेदनशील तरीके से उजागर किया है। नाटक के पात्र जीवन की कठिनाइयों से जूझते हुए कभी भी पलायन का रास्ता नहीं अपनाते, जो उनके संघर्षशील और समाजिक प्रतिबद्धता के प्रति दृढ़ विश्वास को दर्शाता है।
शंकर शेष का लेखन दर्शकों को न केवल सामाजिक जिम्मेदारियों से जोड़ता है, बल्कि उनके मन में सवाल उठाने और चिंतन करने की प्रेरणा भी देता है।इस नाटक में, जहां एक ओर पति अपनी पत्नी को अपनी मानसिक चालों में उलझाकर एक दुष्चक्र में फंसा देता है, वहीं दूसरी ओर पत्नी, जो अंधी होने के बावजूद अपने पति के प्रति अपार विश्वास और प्रेम रखती है, अंत में उसे माफ कर देती है। यह नाटक एक गहरी सोच और संवेदनशीलता की आवश्यकता को उजागर करता है, जिसमें रिश्तों के भीतर के छिपे हुए झूठ और छल को अनकहा छोड़ दिया जाता है।बीसवीं सदी के साठोत्तरी नाटककारों में शंकर शेष का हिन्दी नाट्य साहित्य में विशिष्ट स्थान है। उनके नाटक सामाजिक, सांस्कृतिक और मानसिक उलझनों को उद्घाटित करते हैं और दर्शकों को न केवल मनोरंजन प्रदान करते हैं, बल्कि जीवन की गहरी समस्याओं पर सोचने के लिए विवश भी करते हैं।
शंकर शेष के नाटक समसामयिक संदर्भों से जुड़े होते हुए भी सार्वभौमिकता को छूते हैं, जिसमें सामाजिक विसंगतियों और मानवीय जटिलताओं का चित्रण होता है। ‘बिन बाती के दीप’ नाटक में शंकर शेष ने पति-पत्नी के रिश्ते को एक नए दृष्टिकोण से प्रस्तुत किया है। इस नाटक में शिवराज और उसकी अंधी पत्नी विशाखा के संबंधों को केंद्र में रखा गया है, जहां पति अपनी पत्नी को एक झूठे संसार में उलझाए रखता है, जिससे वह अपने पति पर संदेह नहीं कर पाती। शिवराज विशाखा को इस स्थिति में लाकर उसे इस कदर भावनात्मक रूप से नियंत्रित करता है कि वह उसकी सभी गलतियों और झूठ को जानने के बाद भी उसे माफ कर देती है।


स्वार्थ व महत्वकांक्षा की भावना
नाटक ‘बिन बाती के दीप’ में शंकर शेष ने स्वार्थ और महत्वाकांक्षा की भावना का चित्रण अत्यंत प्रभावशाली तरीके से किया है। यह नाटक न केवल पारिवारिक समस्याओं का गहराई से अध्ययन करता है, बल्कि समाज में प्रचलित मानसिकता और व्यक्ति के स्वार्थी रवैये को भी उजागर करता है। शंकर शेष ने दिखाया है कि आज का मनुष्य, विशेषकर उस समय का व्यक्ति, अपनी महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने के लिए किसी भी हद तक जा सकता है, चाहे इसके लिए उसे रिश्तों की मर्यादा का उल्लंघन करना पड़े या किसी और का शोषण करना पड़े।
नाटक में शिवराज और विशाखा के रिश्ते को आधार बनाकर यह विषय उठाया गया है। विशाखा अंधी है, और शिवराज उसकी इस कमजोरी का फायदा उठाता है। वह अपनी पत्नी की दृष्टिहीनता का उपयोग करता है और उसके लिखे उपन्यासों को अपने नाम से प्रकाशित करवा कर साहित्य जगत में प्रसिद्धि हासिल करता है। शिवराज की महत्वाकांक्षा इतनी प्रबल है कि वह अपनी पत्नी की भावनाओं और अधिकारों को नकार कर अपने स्वार्थ को पूरा करता है। वह यह भी जानता है कि अगर विशाखा जीवित नहीं रही तो उसका अस्तित्व खतरे में पड़ जाएगा, लेकिन अपनी महत्वाकांक्षा के लिए वह उसकी जान को खतरे में डालने की सोचता है।
शिवराज के इस स्वार्थी और कुटिल व्यवहार को नाटक में उसकी छटपटाहट के रूप में व्यक्त किया गया है, जैसे कि वह कहता है - “किया ही क्या जा सकता है। मैं तो अजीब सी स्थिति में फँस गया हूँ। मेरे लिए उसका जिंदा रहना भी जरूरी है और उसका ना रहना भी। मंजु उसका रहना इसलिए जरूरी है कि यदि वह नहीं रहेगी तो लेखक के रूप में मेरा अस्तित्व समाप्त हो जाएगा। उसका न रहना इसलिए जरूरी है कि जब तक वह है, तुम मेरे जीवन में पूरी तरह से नहीं आ सकती। मेरी तो कुछ समझ में नहीं आता।”
यह संवाद शिवराज के मन के द्वंद्व को पूरी तरह से उजागर करता है, जिसमें वह अपने स्वार्थ की पूर्ति के लिए किसी भी सीमा तक गिरने के लिए तैयार है। इस स्थिति में, वह अपनी पत्नी के अंधेपन का लाभ उठाने में संकोच नहीं करता। वहीं, आनंद का पात्र न केवल एक आदर्शवादी है, बल्कि वह विशाखा की आँखों की रोशनी वापस दिलाने के प्रयास में है और शिवराज के धोखे को उजागर करने का काम करता है। आनंद का यह प्रयास यह दर्शाता है कि स्वार्थ और महत्वाकांक्षा से भरे समाज में भी कुछ लोग अपने मूल्यों और आदर्शों से जुड़े रहते हैं। वह विशाखा से कहता है - “नहीं विशाखा तुम्हें, धोखा दिया जा रहा है। वैसे मैं कुछ कहना नहीं चाहता। डर लगता है तुम कहीं टूट न जाओ, तुम्हें कुछ हो ना जाए, विशाखा। बात बार-बार उबलकर मेरे होठों तक आती है, पर मैं कह नहीं सकता। मैं तुम्हें इंग्लैंड तो नहीं ले जा सकता, पर शिमला तक तो ले ही जा सकता हूँ। विशाखा मेरा इतना कहना मान लो।” आनंद का यह संवाद उसके भीतर की मानवीय संवेदनाओं और विशाखा के प्रति उसकी सहानुभूति को प्रकट करता है। वह न केवल विशाखा की मदद करना चाहता है, बल्कि उसे उसके असली अस्तित्व और पहचान की ओर लौटाना भी चाहता है। वह यह भी जानता है कि विशाखा, जो अंधी है, अपने पति के धोखों के प्रति अज्ञात है और उसे अपने अधिकारों का एहसास दिलाने का प्रयास कर रहा है।
इस नाटक के माध्यम से शंकर शेष ने यह संदेश दिया है कि स्वार्थ और महत्वाकांक्षा के कारण रिश्तों में दरारें आ सकती हैं, लेकिन सही दिशा में प्रेम और सहायता का हाथ बढ़ाकर उन रिश्तों को बचाया भी जा सकता है। ‘बिन बाती के दीप’ न केवल पति-पत्नी के संबंधों की जटिलताओं को समझाने का प्रयास करता है, बल्कि यह समाज में बढ़ती स्वार्थ और महत्वाकांक्षा की भावना पर भी कड़ा प्रहार करता है।
नाटक ‘बिन बाती के दीप’ में शंकर शेष ने पारंपरिक भारतीय नारी के रूप को बहुत ही सशक्त तरीके से प्रस्तुत किया है। विशाखा की पात्रता एक आदर्श नारी का जीवंत उदाहरण प्रस्तुत करती है, जो भारतीय समाज में नारी के सशक्त, सहनशील और क्षमाशील रूप को प्रकट करती है। भारतीय समाज में हमेशा से नारी को एक अत्यधिक सम्मानजनक स्थान दिया गया है, जहाँ उसे माँ, पत्नी और बेटी के रूप में पूजा गया है। विशेष रूप से पत्नी के रूप में नारी को त्याग, समर्पण और क्षमा की मूरत माना गया है। शंकर शेष ने इस आदर्श को पूरी तरह से विशाखा के माध्यम से चित्रित किया है।
विशाखा एक अंधी स्त्री है, और उसका जीवन शिवराज के साथ विवाह के बाद अनगिनत संघर्षों से गुजरता है। शिवराज, जो एक औसत दर्जे का लेखक है, अपनी महत्वाकांक्षा को पूरा करने के लिए अपनी पत्नी के अंधेपन का फायदा उठाता है। वह अपनी पत्नी द्वारा लिखी गई रचनाओं को अपने नाम से प्रकाशित करवा लेता है और साहित्य जगत में अपना स्थान बना लेता है। जब विशाखा को यह सच्चाई पता चलती है, तो वह आहत होती है, लेकिन वह भारतीय नारी की सहनशीलता और आत्मविश्वास का एक अद्वितीय उदाहरण प्रस्तुत करती है। वह कहती है:
“अब मैं जीवन को असली रूप में अंकित कर सकूँगी .... पर केवल तुम्हारे सहारे... तुम मुझ जैसी अंधी के सहारे प्यार कर सके तो क्या मैं तुम्हारा एक अपराध भी क्षमा नहीं कर सकती।”
यह संवाद न केवल विशाखा के अंदर छिपी मानसिक ताकत को दर्शाता है, बल्कि यह भी प्रदर्शित करता है कि नारी अपने कर्तव्यों और संबंधों के प्रति कितनी समर्पित और क्षमाशील हो सकती है। विशाखा का यह भाव, कि उसने अपने पति की गलती को समझते हुए उसे क्षमा कर दिया, भारतीय नारी के उच्चतम आदर्शों का प्रतीक है।
विशाखा का पात्र हमें यह सोचने पर मजबूर कर देता है कि एक स्त्री में यह धैर्य, सहनशीलता और आत्मबल कहाँ से आता है। उसके हृदय में अपार प्रेम और विशालता है, जिससे वह अपने पति की धोखाधड़ी को जानने के बावजूद उसे क्षमा करने का निर्णय लेती है। इस प्रकार, शंकर शेष ने न केवल पारंपरिक भारतीय नारी का रूप प्रस्तुत किया है, बल्कि यह भी दर्शाया है कि नारी के हृदय में अपार सहनशीलता और प्रेम होता है, जो उसे समाज के उत्थान में भी योगदान देने की शक्ति प्रदान करता है।
नाटक के अंत में विशाखा का अपने पति को माफ़ कर देना न केवल उसके अद्वितीय साहस और सहनशीलता को उजागर करता है, बल्कि यह भारतीय समाज के उन पारंपरिक मूल्यों को भी जीवित रखता है, जो आज भी भारतीय समाज में महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं। विशाखा की यह क्षमाशीलता और अपने कर्तव्यों के प्रति प्रतिबद्धता न केवल उसे एक आदर्श नारी के रूप में स्थापित करती है, बल्कि नाटककार के माध्यम से दर्शकों को यह सिखाती है कि प्रेम और विश्वास से कोई भी रिश्ते को सशक्त और स्थायी बनाया जा सकता है। समग्र रूप से ‘बिन बाती के दीप’ नाटक समकालीन यथार्थ को उद्घाटित करता है। इसके माध्यम से शंकर शेष ने पति-पत्नी के रिश्ते, समाज में नारी के स्थान और आदर्शों का गहरा और प्रभावशाली चित्रण किया है। नाटक के पात्रों के माध्यम से नाटककार ने न केवल व्यक्ति के व्यक्तित्व को, बल्कि समाज की सच्चाई को भी स्पष्ट किया है।
Keywords .
Field Arts
Published In Volume 6, Issue 1, January 2025
Published On 2025-01-20
Cite This शंकर शेष कृत ‘बिन बाती के दीप’ नाटक में स्त्री-पुरुष संबंधों का यथार्थ विश्लेषण - Shyam Bihari Nayak - IJLRP Volume 6, Issue 1, January 2025.

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